"The greatest achievement of Divine Saint Ved Vyasji for welfare of living being as well non living of universe."
(1) ABOUT 5000YRS AGO divine saint Vedva Vyasaji discovered Lord Being."
"WE know his prayer
"Santakaram Bhujgam GAGANSADRISYAM......"
.Here "s Gagan (sky), Sunya, (zero), space has been refereed as Lord Being Vishnu."
SO LORD BEING IS SPACE."
"THERE IS SPACE ABOVE US,IN FRONT OF US,WITHIN US."
" Every thing wants a space somewhere that is lap of Lord Being.In infinite auto forms."
(2)Vishnu, space descended next in form of celestial bodies about billions of yr prayer ago."
"There r about 15 billion galaxies each having about 15 billion stars ."
"Next it appeared in seeds or progra mes of all living beings."
"In infinite power from one grain of wheat carores of wheat grain can be produced."
"Next it descended in electrons.next it in quarks i . smallest no charged particles.these r only main 4-5 forms but it is infinite forms infinite God plays role in infinite forms."
(3)EACH FORM of GOD HAS INFINITE POTENTIAL."
"Even we everyone is also one of his form, but even whole life is passed we fail to recognize ourselves."
" Recognize yr true form FROM today & have the God qualities of Almighty incorporated in yr life or enjoy sachidananda.
GURU TATTWA
(4) VEDVYASYAJI written the Ved .Here in four Veds he wrote any thing or given to fire or i e Surya or Agni deo is Yagya.
( 5 )" Next Vedvyasaji wrote 18 PURANS."
" NEXT HE WROTE BHAGWAT.bha for bhakti, g for gyana (Knowledge ),wa for varagya ( SANYAS ),t for tyaga (Sacrifice )."
"we can go for only 1st & 2nd step .3rd & forth r two difficult in Kaliyug (Dark Age)or present time."
"Koman Coban (He last incarnated on this planet as a resident of Atlantis,1,75,000 years ago),Aghsha,Gautam Budha ,Swami Parmanand Tirth Maharaj,Great Yogini Lall,Triloki Baba & Vishnu Tirthji Maharajji etc.achieved those higher stage."
"So they visited REIGN of LORD & also doing welfare of living & non living in subtle state.They given Chinmaya (Pure knowledge) through Chitta (mind stuff)."
( 6 )Then Vedv Vasa wrote Mahabharat & GITA. Here he also depicted all moral lessons of life with reference to society &karma.Though all the same lessons were earlier described by him in Vedas,Puran,Bhagwat,but the same all here again for welfare of humans or under staning or realizing God here he described in different way again."
Guru Tattwa
( 7 )"Even then Vedvyasa was not satisfied. then he wrote BALLILA OF KRISHNA,& PREMLILA OF KRISHNA."
THESE REPRESENT CHILD HOOD & YOUTH STAGE OF LIFE.so after FIRSTONE now is turn for 2nd one.here some other is Krishna roop(Feature) & OTHER IS PLAYING ROLE OF RADHA."
SO PREM OR LOVE SHOULD BE PURE WITH GOOD FEELINGS &ONE SHOULD RECOGNIZE THAT ONE IS WITH KRISHNA OR RADHA OR DHARMPUTRA YUDHISTIR."
"NOT WITH ANY DEVIL OR DURYODHAN.LOVER IS ALSO KRISHNA ROOP.& NEW BORN CHILD IS ALSO NEW KRISHNA AVTAR."
"LATER ON NEW CHILD AFTER DECEIVED BY OLD ONES MAY BEHAVE LIKE DEVIL IN KALIYUG."
"The Social Conductivity &Spirituality (selflessness) can be attained very easily on this EARTH,under this SKY,breathing the same air of UNIVERSE."
" माँ सरस्वती का दिव्य - ज्ञान संत-कबीर, संत-रेदास, संत-ज्ञानेश्वर, वेद-व्यास, तुलसीदास, वाल्मीकी, दिव्य वैज्ञानिक डाल्टन एवं आइन्सटाइन आदि जिस दिव्य-विधि से परम पिता परमेश्वर से प्राप्त किया है, इसकी क्रिया-शक्ति का स्वरूप ‘‘दक्षिणा मूर्ति‘‘ है।
दक्षिणामूर्ति को समझने के लिए हमारे पास तीन साहित्यिक आधार उपलब्ध है :
1) दक्षिणामूर्ति उपनिषद
2) दक्षिणामूर्ति की आरती
3) आदि शंकराचार्य विरचित दक्षिणामूर्ति स्तोत्र। इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है।
(1) दक्षिणामूर्ति उपनिषद् अर्थात उपासना कांड जिसे हम आणवोपाय भी कह सकते हैं।
(2) दक्षिणामूर्ति की आरती अर्थात साधन काण्ड, जिसे शाक्तोपाय भी कहा जा सकता है।
(3) दक्षिणामूर्ति स्तोत्र अर्थात ज्ञान-काण्ड, यही शाम्भवोपाय है। इन तीनों पर सूक्ष्म विचार करने से विषय को बहुत समझा जा सकता है।
‘‘ सबसे पहले समझने की बात यह है कि, दक्षिणा का अर्थ है? दक्षिणामूर्ति उपनिषद् में दक्षिणा का अर्थ इस प्रकार दिया गया है कि, तत्व-ज्ञान-रूपिणी तथा ब्रह्म प्रकाशक बृद्वि ही दक्षिणा है तथा वही परम तत्व के अभीक्षण अर्थात साक्षात्कार में मुख अर्थात द्वार है। बह्मवादी इसे दक्षिणामुख शिव कहते हैं।
इसका यह अर्थ हुआ कि, दक्षिणामुख का संधिविच्छेद दक्षिण + आमुख नही, अपितु दक्षिणा + मुख है। प्रायः इसका अर्थ दक्षिणा मुख अर्थात दक्षिण अभिमुख किया जाता है, किन्तु उपनिषद् के अनुसार यह आत्मा की शक्ति ही है, क्योंकि बुद्वि भी शक्ति की एक क्रिया ही है जो आत्मा की बोधस्वरूपता (अथवा ज्ञप्ति) को चित्त पर प्रतिबिम्बित कर देती है।
वही शक्ति, बुद्वि के रूप में जगत् के ज्ञान का भी कारण है तथा आत्मज्ञान का मुख अर्थात द्वार भी। ईश्वर शक्ति-स्वरूप है इसलिए उसे ही दक्षिणामूर्ति कहा गया है। वही गुरू है, वही प्राप्तव्य है, तथा वही उसका साधन भी है।
युग पर युग तथा कल्प पर कल्प व्यतीत हो जाने पर भी दक्षिणामूर्ति रूपी चैतन्य गुरू में कोई परिवर्तन नहीं होता, वह नित्य युवा ही बना रहता है जबकि शिष्य (जीव) जिनकी स्थिति चित्त स्थापित है, वह जन्मते-मरते रहते हैं, कभी युवा, तो कभी वृद्ध हो जाते हैं। वहीं नित्य - गुरू, दक्षिणा रूप मे जड़ चित्त को चेतना प्रदान करता है। बृद्धि रूप में विकसित होता है।
स्वंय ही माया बनकर बृद्धि पर आच्छादित हो जाता है तथा स्वंय ही मौन उपदेश द्वारा बुद्धि को माया मुक्त करता है। उसका स्वभाव सदैव ही जगत के लिये कल्याण कारी है। वह इतना दयालु है कि, शिष्यों पर भी अपने आप को प्रकट कर देता है। जिस प्रकार चित्त को गुरू की चेतन शक्ति का दान मौन होता है, उसी प्रकार उसका ज्ञानोपदेश भी मौन ही है जो शिष्य में दिव्य मौन जाग्रत कर देता है, जैसा कि आरती में कहा गया है कि "दिव्य मौन उपदेश जगाता।"
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